Supreme Court: : सोशल मीडिया पर फेक, हिंसक या देश-विरोधी कंटेंट के फैलाव के खतरे के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि ऐसा सिस्टम तैयार किया जाए जो किसी भी यूज़र-जनरेटेड पोस्ट को अपलोड होने से पहले स्कैन कर सके — अब प्री-स्क्रीनिंग बनाम फ्रीडम ऑफ स्पीच पर तीखी बहस शुरू।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
कोर्ट की बेंच (CJI सूर्यकांत व जस्टिस जॉयमल्या बागची) ने कहा कि पोस्ट-टेकडाउन (post-take-down) अक्सर बहुत देर से होता है। कोर्ट ने I&B Ministry को निर्देश दिया कि वे:
- 4 हफ्ते में एक प्री-स्क्रीनिंग सिस्टम का ड्राफ्ट तैयार करे।
- ड्राफ्ट सार्वजनिक रूप से रखें और सुझाव व आपत्तियाँ आम जनता से लें।
- विशेषज्ञों, मीडिया प्रोफेशनल्स और न्यायिक सदस्यों से राय लेकर अंतिम रूप दें।
- अंतिम सिस्टम कोर्ट के समक्ष पेश किया जाए।
प्री-स्क्रीनिंग बनाम फ्रीडम ऑफ स्पीच — मुख्य बहस
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य सेंसरशिप नहीं बढ़ाना, बल्कि नुकसानकारक कंटेंट की रोकथाम है। फिर भी कई महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं:
- क्या यह अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता का हनन होगा? आलोचक डरते हैं कि प्री-स्क्रीनिंग से सरकारी या सिस्टमिक बायस के कारण वैध आलोचना भी बंद हो सकती है।
- “एंटी-नेशनल” शब्द का दायरा क्या होगा? वकील प्रशांत भूषण ने बताया कि इस शब्द की परिभाषा अस्पष्ट है—क्या सरकार की साधारण आलोचना भी एंटी-नेशनल मानी जाएगी?
- तकनीकी व्यवहार्यता: क्या AI/ऑटोमेटेड सिस्टम तेजी से और सटीकता से फैसले ले पाएगा या गलत ब्लॉकिंग बढ़ेगी?
- देर से हटाने का नुकसान: कोर्ट ने उदाहरण देते हुए कहा कि वायरल पोस्ट एक घंटे में भी बड़ी क्षति कर सकता है—इसलिए रोकथाम जरूरी है।
क्या मौजूदा सेल्फ-रेगुलेशन असफल रहा?
OTT और बड़े डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने बताया कि उनके पास सेल्फ-रेगुलेटरी कोड हैं। पर कोर्ट ने पूछा—यदि कोड प्रभावी हैं तो फिर गलत कंटेंट इतनी आसानी से वायरल क्यों होता है? इस पर कोर्ट की चिंता स्पष्ट रही कि मौजूदा पॉलिसीज़ पर्याप्त नहीं हैं।
प्री-स्क्रीनिंग से क्या बदलाव आ सकते हैं?
- कंटेंट अपलोड करने के बाद वायरल होने की संभावना कम हो सकती है।
- कई पोस्ट्स पर अपलोड-टाइम में देरी आ सकती है—विशेषकर संदिग्ध सामग्री पर।
- डिजिटल क्रिएटर्स और पत्रकारों को अधिक कन्फॉर्मिटि या शिकायत प्रक्रिया से गुजरना पड़ सकता है।
- गलत इस्तेमाल की आशंका बनी रहेगी—कठोर गाइडलाइन और ऑडिट-मैकेनिज्म जरूरी होंगे।
समर्थन और विरोध — दोनों तर्क मौजूद
समर्थन में तर्क: फेक न्यूज़ और अफवाहें तेजी से फैलती हैं; प्री-स्क्रीनिंग से समाज में हिंसा और तनाव फैलने से पहले नियंत्रित किया जा सकेगा।
विरोध में तर्क: इससे फ्रीडम ऑफ स्पीच सीमित हो सकती है, आलोचना पर सेंसरशिप का खतरा बढ़ेगा और डिजिटल क्रिएटर्स उत्पीड़ित हो सकते हैं।
क्या भारत प्री-स्क्रीनिंग युग में प्रवेश कर रहा है?
कोर्ट का आदेश एक बड़ा कदम है — पर अंतिम तस्वीर इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार द्वारा प्रस्तावित ड्राफ्ट कैसा है, जनता-सुझाव क्या कहते हैं, और कोर्ट की अंतिम टिप्पणी क्या रहेगी। आने वाले महीनों में यह क्लियर होगा कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन किस तरह से तय किया जाएगा।
































































