Moksha rituals: समाज में प्रचलित धारणा—कि मोक्ष केवल पुत्र के माध्यम से ही संभव है—पर एक बार फिर विमर्श तेज हुआ है। वैदिक साहित्य के आलोक में विद्वान मानते हैं कि मोक्ष का आधार न तो संतान-निर्भर है, न ही किसी एक लिंग-विशेष पर केंद्रित; (Moksha rituals)बल्कि वह आत्मशुद्धि, सत्कर्म, ब्रह्मज्ञान और ईश्वर-उपासना पर टिका है।
मोक्ष साधना-आधारित, संतान-आश्रित नहीं
वेदों में मोक्ष को बाह्य कर्मकांड से अधिक आत्मिक अनुशासन का फल बताया गया है। यजुर्वेद (40.15)—“अग्ने नय सुपथा…”—का आशय है: “हे अग्नि! हमें शुभ मार्ग पर ले चलो, हमारे पाप दूर करो।” यहाँ मोक्ष की प्राप्ति के लिए संतान को शर्त नहीं माना गया।
पुत्र-पुत्री समान: वैदिक प्रमाण
- ऋग्वेद (10.85.46): “समानं व्रता अनुजानता उभे”—धर्म में स्त्री-पुरुष समान भागीदार।
- अथर्ववेद (14.1.20): “पुत्री वा पुत्रवत्सदा भवति”—पुत्री, पुत्र के समान ही मान्य।
वैदिक दृष्टि में पिण्डदान, तर्पण, श्राद्ध जैसे संस्कार केवल पुत्र तक सीमित नहीं; पुत्री भी वेदसम्मत विधि से इन्हें संपन्न कर सकती है।
पिण्डदान, तर्पण, ताशगात्र: भाव और उद्देश्य
- पिण्डदान: दिवंगत के प्रति अन्न-जल अर्पण का कृतज्ञतामय संस्कार—सूक्ष्म देह की तृप्ति का प्रतीक।
- तर्पण: जल अर्पण द्वारा पितरों का संतोष; स्मृति और ऋणस्वीकार का वैदिक रूप।
- ताशगात्र (तशगात्र): अंग-प्रत्यंग के प्रतीकात्मक संस्कार; उद्धार-स्मरण और आत्मिक शांति का संकल्प।
इन क्रियाओं का मूल रहस्य श्रद्धा, स्मरण और आत्मिक शांति है—न कि लिंग-आधारित अधिकार।
भ्रांति कैसे बनी? सुधार क्यों आवश्यक?
समाज में बाद के ग्रंथों और परंपरागत व्याख्याओं ने “पुत्र ही मोक्षदायी” जैसी धारणा को पुष्ट किया, जिससे कन्या का अवमूल्यन हुआ। वैदिक प्रमाण इसके प्रतिकूल हैं। अतः वेदगामी पुनर्परिभाषा आवश्यक है—जहाँ मोक्ष का मानदंड ज्ञान, कर्म, भक्ति और धर्मपालन हो; न कि संतान का लिंग।
समकालीन संदेश: समान अधिकार, समान उत्तरदायित्व
- मोक्ष स्व-साधना से—ईश्वर-उपासना, ब्रह्मज्ञान, सत्य-आचरण और करुणा से संभव।
- पिण्डदान, तर्पण, श्राद्ध—पुत्री-पुत्र दोनों समान रूप से कर सकते हैं, वैदिक विधि से समान प्रभाव के साथ।
- “पुत्र-मात्र मोक्षदाता” की धारणा से समाज को मुक्त करना होगा; वैदिक समता को व्यवहार में लाना होगा।
निष्कर्ष: वेदों का स्पष्ट संदेश है—मोक्ष के द्वार सबके लिए समान हैं। यदि परिवार में केवल पुत्री है, तो वह भी पिता/मातृ इच्छा के अनुरूप सभी वैदिक संस्कार विधिपूर्वक कर सकती है।
आगे की राह: वेदगामी पुनर्पाठ और व्यवहार
समाज, धर्माचार्य और परिवार—सभी को चाहिए कि वे वेद-सम्मत समता को स्वीकारें, धार्मिक संस्कारों में बेटियों की समान भागीदारी सुनिश्चित करें और मोक्ष-संस्कार को आध्यात्मिक नैतिकता व समानाधिकार के साथ पुनर्परिभाषित करें। यही वैदिक परंपरा का प्रमाणिक और प्रेरक मार्ग है।
सनातन पुनरुत्थानवादी
हेमराज तिवारी


































































