shankh therapy: जयपुर। हाल ही में जयपुर के एक हार्ट केयर सेंटर की रिसर्च में दावा किया गया है कि शंख बजाना स्लीप एप्निया (ओएसए) के मरीजों के लिए फायदेमंद हो सकता है।(shankh therapy) यह दावा ‘गार्डियन’ की रिपोर्ट में भी सामने आया है। लेकिन सवाल है…क्या यह सच में इलाज है या एक और प्रचारित ‘रामबाण’ नुस्खा?
एक जानलेवा लेकिन अनदेखी बीमारी
स्लीप एप्निया नींद से जुड़ी गंभीर समस्या है, जिसमें मरीज की सांस सोते समय बार-बार रुक जाती है। नतीजतन नींद टूटना, दिन में थकान, चिड़चिड़ापन और सुस्ती जैसी परेशानियां होती हैं। दुनिया भर में लाखों लोग इससे जूझ रहे हैं, लेकिन कई को पता भी नहीं चलता।
स्टडी में क्या किया गया?
इस रिसर्च में 19 से 65 साल के 30 मरीज शामिल थे। इनमें से आधे मरीजों को शंख बजाने की ट्रेनिंग दी गई और बाकी को डीप ब्रीदिंग एक्सरसाइज कराई गई। दोनों को हफ्ते में 5 दिन, कम से कम 15 मिनट यह अभ्यास करने को कहा गया। 6 महीने बाद नतीजों में खुलासा हुआ कि शंख बजाने वालों में दिन में नींद आने की शिकायत 34% तक कम हो गई और रात में ब्लड ऑक्सीजन स्तर बेहतर रहा।
डॉक्टरों का दावा और तकनीकी तर्क
रिसर्च के लीडर डॉ. कृष्ण के शर्मा का कहना है कि शंख बजाना एक कम खर्चीली ब्रीदिंग टेक्निक है, जिसमें किसी मशीन या दवा की जरूरत नहीं। इसमें उत्पन्न कंपन और वायुरोध गले और सॉफ्ट पैलेट की मांसपेशियों को मजबूत करता है।
लेकिन, क्या यह सबूत पर्याप्त हैं?
वर्तमान में स्लीप एप्निया का सबसे आम इलाज सीपैप मशीन है, जो नींद में प्रेशराइज्ड हवा भेजकर सांस रुकने से बचाती है। हालांकि यह असरदार है, लेकिन कई मरीज इसे असहज मानते हैं। इस स्टडी का सैंपल साइज मात्र 30 मरीजों का था, जो वैज्ञानिक मानकों के अनुसार काफी छोटा है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या इतने कम डेटा पर इसे एक पुख्ता इलाज मानना सही है?
पुरानी रिसर्च क्या कहती है?
इससे पहले भी कुछ शोधों में वुडविंड इंस्ट्रूमेंट बजाने से स्लीप एप्निया में लाभ की बात सामने आई थी। अब शंख बजाना भी इसी श्रेणी में शामिल किया जा रहा है। लेकिन जब तक बड़े स्तर पर और डबल-ब्लाइंड ट्रायल्स नहीं होते, तब तक इसे ‘साइड थेरेपी’ से आगे बढ़ाकर ‘मेनस्ट्रीम ट्रीटमेंट’ मानना जल्दबाजी हो सकती है।
उम्मीद या अतिशयोक्ति?
अगर आप स्लीप एप्निया से जूझ रहे हैं, तो शंख बजाना एक अतिरिक्त अभ्यास के रूप में फायदेमंद हो सकता है। लेकिन इसे मुख्य इलाज मानने से पहले सख्त वैज्ञानिक परीक्षण और बड़े पैमाने की रिसर्च जरूरी है। अन्यथा, यह एक ‘मेडिकल हाइप’ बनकर ही रह सकता है।