Supreme Court Appointment Controversy: सुप्रीम कोर्ट की जजों की हालिया नियुक्ति प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा आदेशों पर हस्ताक्षर के बाद पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विपुल मनुभाई पंचोली और बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस आलोक अराधे को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त किया गया—जिससे सर्वोच्च न्यायालय में कुल संख्या अब 34 (मुख्य न्यायाधीश सहित) हो गई। (Supreme Court Appointment Controversy) परंतु इस नियुक्ति के ख़िलाफ़ कॉलेजियम में एक महत्वपूर्ण असहमति दर्ज हुई जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया, जिससे पारदर्शिता और तर्क-वितर्क पर बहस छिड़ गई है।
किसने असहमति जताई और क्यों?
कॉलिजियम की सिफारिश 5 में से 4-1 बहुमत से पारित हुई; जस्टिस बीवी नागरत्ना ने असहमति का नोट दर्ज किया। उनके मुख्य तर्कों में यह शामिल था कि:
- जस्टिस विपुल पंचोली कॉलेजियम की अखिल भारतीय वरिष्ठता सूची में काफी नीचे (57वें) हैं—जबकि कई वरिष्ठ, प्रतिभाशाली न्यायाधीश मौजूद थे जिन्हें पहल क्यों नहीं दी गयी।
- पंचोली गुजरात हाईकोर्ट के हैं और सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही गुजरात से दो जज हैं—एक और नियुक्ति से क्षेत्रीय संतुलन प्रभावित हो सकता है।
- इस तरह की नियुक्ति न्याय-प्रशासन और कॉलेजियम की विश्वसनीयता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।
असहमति नोट क्योँ विवादित हुआ?
विशेष विवाद इस बात को लेकर खड़ा हुआ कि जस्टिस नागरत्ना का असहमति नोट सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया गया। यह पहला मौका था जब जस्टिस नागरत्ना ने लिखित असहमति दर्ज की—फिर भी उसका प्रकाशन नहीं किया गया। इस प्रैक्टिस-परिवर्तन को Campaign for Judicial Accountability and Reforms (CJAR) ने निराशाजनक बताया है और उन्होंने नोट सार्वजनिक करने की माँग की है। CJAR का आरोप है कि नियुक्ति संबंधी प्रकाशित बयान में उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि और कॉलेजियम कोरम का उल्लेख पहले की तरह नहीं किया गया।
महिला न्यायाधीशों की अनदेखी पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने भी नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए और पूछा कि क्या तीन वरिष्ठ महिला जजों को पदोन्नति में अनदेखा किया गया—उनके हवाले से कुछ न्यायाधीशों का नाम लिए गए जिनके मुकाबले में महिला जजों की प्राथमिकता क्यों नहीं रही। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में केवल जस्टिस बीवी नागरत्ना ही एकमात्र महिला जज हैं, और 2021 के बाद से कोई महिला नियुक्ति नहीं हुई।
कॉलेजियम क्या है—संक्षेप में
भारत में जजों की नियुक्ति व्यवस्था लंबे समय से कॉलेजियम सिस्टम से चल रही है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन प्रमुख ‘जजेज के मामले’ (साधारणतः 1981, 1993 और 1998 के अभिवचन) के बाद यह रूप ले चुका है—जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठतम न्यायाधीशों का समूहीय निर्णय नियुक्तियों के लिए निर्णायक माना गया है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में पाँच वरिष्ठतम न्यायाधीश इस कॉलेजियम के सदस्य होते हैं।
क्यों है बहस—पारदर्शिता बनाम स्वतंत्रता
कॉलेजियम व्यवस्था पर वर्षों से बहस चलती आ रही है। आलोचना का बड़ा बिंदु पारदर्शिता और संभावित ‘नेपोटिज़्म’ (भाई-भतीजावाद) है—यानि परिचित, बड़े वकीलों या न्यायिक परिवारों के लोगों को प्राथमिकता मिलना। दूसरी ओर समर्थक तर्क देते हैं कि न्यायपालिका को राजनीतिक दबाव से मुक्त रखते हुए निर्णयस्वतंत्रता देने के लिए कॉलेजियम आवश्यक है।
अतीत का प्रयास—एनजेएसी और उसका रद्द होना
2014 में केंद्र सरकार ने नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) का विधेयक लाया ताकि कॉलेजियम की जगह एक मिश्रित आयोग के माध्यम से नियुक्तियाँ हों; पर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध करार देते हुए रद्द कर दिया। तब से कॉलेजियम व्यवस्था पूर्ववत काम कर रही है, पर पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर सवाल उठते रहते हैं।
अब क्या अपेक्षा की जाए?
नौकरीगत वरिष्ठता, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, जेंडर समता और असहमति नोटों के प्रकाशन जैसे मुद्दे पर सार्वजनिक बहस तेज होगी। मान्यता और आलोचना के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण होगा—ख़ासकर तब जब न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ-साथ उसके फैसलों की जवाबदेही की माँग भी बढ़ रही है। CJAR, वरिष्ठ वकील और कुछ न्यायिक हस्तियाँ सार्वजनिक रूप से अधिक पारदर्शिता की माँग कर रही हैं; वहीं कॉलेजियम के पक्षधर यह भी कहते रहे हैं कि नियुक्तियाँ न्यायिक ढाँचे की रक्षा के लिए आत्मनिर्णय से होनी चाहिए।