रोड शो और ऊत्साह — पर जनता का साथ नहीं

पहला रोड शो मांगरोल में आयोजित किया गया जहाँ मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री ने मोरपाल सुमन के समर्थन में जनसंपर्क किया। पहले रोड शो की अपेक्षित प्रतिक्रिया न मिलने पर पार्टी ने अंतिम दिन अंता में दूसरा रोड शो किया, जिसमें मदन राठौड़ भी शामिल रहे। इन कार्यक्रमों के बावजूद स्थानीय मतदाता मैदान पर मजबूती से नहीं दिखे और जनसमर्थन सीमित रहा।

रणनीतिकारों और टीम में क्या कमी रही?

चुनावी रणनीति की जिम्मेदारी पांच बार के सांसद दुष्यंत सिंह और संसदीय कार्य मंत्री जोगाराम पटेल को दी गई थी, साथ ही स्थानीय नेता गणेश माहुर को सक्रिय रखा गया। अनुभवी नेतृत्व होने के बावजूद रणनीति की क्रियान्वयन में धीरेपन और निर्णयों की खामियाँ दिखीं।

मुख्य कमियां

  • मैदान में पूर्ण उपस्थिति का अभाव: कई वरिष्ठ नेता और मंत्री समय पर क्षेत्र में नहीं पहुंचे।
  • कठोर मैन-टू-मेंट मार्किंग की कमी: कांग्रेस ने व्यक्तिगत संपर्क पर जोर दिया, जो बीजेपी के प्रचार में नहीं दिखा।
  • टिकट चयन और स्थानीय संतुलन पर सवाल: प्रबल दावेदारों की गैर-मौजूदगी और जातिगत समीकरण की अनदेखी।
  • कमजोर संदेश और कम निचले स्तर का संगठन: कुछ नेता केवल ‘मुंह दिखाई’ तक सीमित रहे।

टिकट चयन और प्रचार के असर

उम्मीदवार चयन पर उठ रहे सवालों का बड़ा असर देखने को मिला। पूर्व मंत्री प्रभु लाल सैनी जैसे दावेदार प्रचार में सक्रिय नहीं रहे। एससी-वोट बैंक के दृष्टिकोण से मदन दिलावर की गैर-मौजूदगी और एसटी समुदाय के लिए किए गए कुछ प्रयास अपेक्षित असर नहीं दे पाए। वीडियो अपील और दूरस्थ समर्थन से स्थानीय संपर्क की कमी पूरी नहीं हुई।

कांग्रेस की पागड़ी — मैदान पर बेहतर संपर्क

कांग्रेस ने जगह-जगह मैन-टू-मेंट मार्किंग और दिग्गज नेताओं के छोटे-छोटे गांवों में जाकर संपर्क से प्रचार को गति दी। टीकाराम जूली जैसे नेता व्यक्तिगत संपर्क के जरिए मतदाताओं तक सीधे पहुँचे — यह तरीका बीजेपी की रणनीति के मुकाबले अधिक प्रभावी साबित हुआ।

अंततः अंता उपचुनाव बीजेपी के लिए एक चेतावनी बनकर उभरा — बड़े नेताओं और रोडशो का होना पर्याप्त नहीं, स्थानीय स्तर पर समय-समर्पित फील्ड वर्क, सही टिकट चयन और कड़े Grassroots संपर्क अनिवार्य हैं। भाजपा की टीम ने संसाधन और नेताओं की भागीदारी जुटाई, लेकिन योजना क्रियान्वयन और जमीन पर तैनाती में कमज़ोरियाँ निर्णायक रहीं।